New Delhi, 2 सितंबर . स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संविधान सभा के सदस्य और अनुभवी प्रशासक, कमलापति त्रिपाठी के पास सब कुछ था, जो एक Chief Minister के पास होना चाहिए. इसी काबिलियत ने 4 अप्रैल 1971 को उन्हें उत्तर प्रदेश की राजनीति में सिंहासन पर बैठाया. लेकिन, 3 सितंबर 1905 को जन्मे इस कद्दावर नेता को इतिहास उस घटना के लिए भी याद करता है, जब उनके कार्यकाल में उत्तर प्रदेश की पुलिस फोर्स ने विद्रोह कर दिया. 1973 में जब देश आजाद था और लोकतंत्र स्थापित हो चुका था, इस दौर में विद्रोह उठा और यही विद्रोह उनकी Chief Minister की कुर्सी के अंत का कारण बना.
शायद किसी को नहीं पता था कि महज दो साल में इतिहास उनकी सरकार को ऐसा झटका देगा, जो अब तक किसी चुनी हुई सरकार को नहीं मिला था. राज्य की अर्धसैनिक बल, प्रांतीय सशस्त्र बल (पीएसी) के जवानों में लंबे समय से भीतर ही भीतर असंतोष सुलग रहा था. कहा जाता है कि इसकी वजहें थीं, खराब सेवा शर्तें, दुर्व्यवहार, और अधिकारियों की मनमानी. दबी जुबान से स्वर उभरते रहे, जिन पर शायद किसी ने गौर ही नहीं किया.
मई 1973 की एक गर्म दोपहर ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को ऐसा झटका दिया, जिसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दी. पीएसी की 12वीं बटालियन के जवानों ने खुलेआम विद्रोह कर दिया. State government के हाथ-पांव फूल गए. हालात इतने बिगड़ गए कि Lucknow में हड़कंप मच गया और मामला सीधे दिल्ली तक पहुंचा. Chief Minister पंडित कमलापति त्रिपाठी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को स्थिति काबू में लाने के लिए सेना बुलानी पड़ी, जो एक आजाद भारत में दुर्लभ और गंभीर फैसला था.
Lucknow, मेरठ और बनारस जैसे शहरों में सेना ने मोर्चा संभाला. 22 से 25 मई तक चले इस ऑपरेशन में 30 पीएसी जवान मारे गए और सेना ने भी 13 जवान खोए. 500 से अधिक जवानों को बर्खास्त किया गया, 65 मुकदमे चले, और कई को आजीवन कारावास तक की सजा हुई.
इलाहाबाद हाईकोर्ट की एक याचिका में इस विद्रोह के कुछ अहम बिंदु मिलते हैं, जिसे उस समय पीएसी का हिस्सा रहे एक कांस्टेबल ने दर्ज किया था. साल 1973 में, याचिकाकर्ता उत्तर प्रदेश प्रांतीय सशस्त्र बल (पीएसी) में कार्यरत था. याचिकाकर्ता की सेवाएं 1973 तक अस्थायी थीं.
याचिकाकर्ता ने इस बात का जिक्र किया है कि 1973 में पीएसी के कई कर्मचारियों ने विद्रोह कर दिया. विद्रोह को दबाने के लिए सेना बुलानी पड़ी. पीएसी के कई कर्मचारियों, जिन पर विद्रोह में शामिल होने का संदेह था, के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की गईं और उनकी सेवाएं समाप्त कर दी गईं.
1973 में इस बगावत का राजनीतिक असर गहरा था. केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी और कमलापति त्रिपाठी उन्हीं की पार्टी से राज्य में Chief Minister थे. बावजूद इसके, इंदिरा गांधी ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उन्हें 12 जून 1973 को इस्तीफा देने को कहा. इसके बाद उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया.
यह आजाद भारत का पहला मौका था जब किसी राज्य के Chief Minister को अपनी ही पार्टी की केंद्र सरकार ने इस तरह पद से हटाया हो. त्रिपाठी की सरकार के पास विधानसभा में 280 सीटों का बहुमत था, लेकिन विद्रोह से उपजे जनाक्रोश और प्रशासनिक असफलता ने उन्हें पूरी तरह घेर लिया.
हालांकि, बाद में केंद्र की राजनीति में उन्हें जगह मिली थी. 8 अक्टूबर 1990 को वाराणसी में उनका निधन हुआ. एक लेखक और भारतीय राजनीतिज्ञ के तौर पर आज भी उन्हें याद किया जाता है.
–
डीसीएच/जीकेटी
You may also like
ट्रंप राज में मची उथल-पुथल के बीच कैसे मिलेगा H-1B? भारतीय छात्र 5 स्ट्रैटेजी से पा सकते हैं US वर्क वीजा
उदयपुर में स्कूल की बच्ची से रेप करने वाला जिम ट्रेनर पकड़ा गया, पुलिस लाई सामने तो फूट-फूट रोने लगा
Drew Barrymore की इच्छा: Jennifer Aniston और Adam Sandler के साथ फिर से काम करना
त्रिकोणीय टी20 सीरीज : अफगानिस्तान ने पाकिस्तान को 18 रन से हराया
PAK vs AFG Highlights: अफगानी पठानों के सामने पाकिस्तान ने डाले हथियार, एशिया कप से पहले खुल गई टीम की पोल