हम सभी जानते हैं कि हमारे धर्म में मृतक का दाह संस्कार किया जाता है, जिसके बाद दस दिनों तक पिण्डदान किया जाता है। गरुड पुराण के अनुसार, मृत्यु के बाद पिण्डदान से मृतक की आत्मा का शरीर बनता है, जिससे वह यमलोक की यात्रा आसानी से कर पाती है। हिन्दू धर्म में यह श्राद्ध कर्म आमतौर पर पुत्रों द्वारा किया जाता है। इस लेख में हम जानेंगे कि पिता की मृत्यु के बाद पुत्र को क्या-क्या करना चाहिए।
गरुड पुराण में भगवान विष्णु ने कहा है कि दशगात्र विधि का पालन करने से पुत्र पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान, पुत्र को अपने पिता के निधन पर शोक को त्यागना चाहिए और सात्विक भाव से पिण्डदान करना चाहिए।
इस विधि के दौरान, पुत्र को ध्यान रखना चाहिए कि उसकी आंखों से एक भी आंसू न गिरे। क्योंकि यदि पुत्र या रिश्तेदारों द्वारा अश्रुपात होता है, तो मृतक पिता को इसका सामना करना पड़ता है।
भगवान विष्णु ने कहा है कि पुत्र को दशगात्र विधि के दौरान निरर्थक शोक नहीं करना चाहिए। शोक करने से मृतक पिता वापस नहीं आ सकते। पृथ्वी पर जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है, और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म भी निश्चित है।
इसलिए, बुद्धिमान व्यक्ति को जन्म और मृत्यु के विषय में शोक नहीं करना चाहिए। कोई भी उपाय नहीं है जिससे मृत व्यक्ति वापस आ सके।
पिता या प्रियजनों की मृत्यु के बाद, पुत्र को यह समझना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति हमेशा साथ नहीं रह सकता। जब आत्मा का शरीर से संबंध समाप्त हो जाता है, तो अन्य रिश्तों की बात ही क्या। जैसे यात्री यात्रा करते समय विश्राम करते हैं और फिर आगे बढ़ते हैं, उसी प्रकार आत्मा भी अपने कर्मों को भोगकर अपने गंतव्य की ओर बढ़ती है। इसलिए, पुत्र को अपने पिता के लिए विधिपूर्वक कर्म करना चाहिए ताकि उन्हें मोक्ष मिल सके।
गरुड़ जी भगवान विष्णु से पूछते हैं कि यदि किसी व्यक्ति के पास पुत्र नहीं है, तो वह विधि कौन करेगा। भगवान विष्णु बताते हैं कि पत्नी, भाई या ब्राह्मण भी यह कार्य कर सकते हैं।
इसके अलावा, यदि किसी व्यक्ति के भाई के पास पुत्र हैं, तो वे भी दशगात्र आदि कार्य कर सकते हैं। यदि सभी भाई पुत्रहीन हैं, तो मित्र या पुरोहित को यह कार्य करना चाहिए।
यदि एक पुरुष की कई पत्नियाँ हैं और उनमें से कोई एक पुत्रवती हो जाती है, तो सभी पत्नियाँ उसी पुत्र से पुत्रवती मानी जाती हैं। यदि सभी भाई पुत्रहीन हैं, तो मित्र पिण्डदान कर सकता है।
भगवान विष्णु ने कहा कि यदि ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु हो जाए, तो पिता को उसकी दशगात्र क्रिया नहीं करनी चाहिए। कई पुत्रों के होने पर भी यह कार्य एक ही पुत्र को करना चाहिए।
दशगात्र विधि के दौरान, ज्येष्ठ पुत्र को एक समय भोजन करना चाहिए, भूमि पर सोना चाहिए और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। तभी पिता की आत्मा को मुक्ति मिलती है।
जो पुत्र विधिपूर्वक इस विधि को पूरा करता है, उसे वही फल मिलता है जो पृथ्वी की सात बार परिक्रमा करने के बाद प्राप्त होता है। दशगात्र से लेकर पिता की वार्षिक श्राद्ध क्रिया करने वाला पुत्र गया श्राद्ध का फल प्राप्त करता है।
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