लोक संस्कृति का हो रहा क्षरण, आधुनिकता के सामने हारती पीढ़ियांसावन की सुगंध किताबों तक सीमित हमीरपुर 20 जुलाई (हि.स.)। बुंदेलखंड की माटी में सावन का महीना कभी उल्लास, उमंग और सामाजिक एकता का प्रतीक होता था। हरियाली से भरपूर खेत, आम के पेड़ों पर झूलती बालिकाएं, चौपालों में गूंजती कजरी और लोकगीत ये सभी मिलकर सावन को लोक उत्सव बना देते थे। परंतु अब यह सब बीते समय की बातें बनती जा रही हैं।
आधुनिकता की चमक और मोबाइल संस्कृति की गिरफ्त ने इस सांस्कृतिक समृद्धि को धीरे-धीरे निगल लिया है। गांवों में पहले जो सावन के आते ही गीत-संगीत, झूले और मेलों की धूम मचती थी, वह अब नदारद है। अब न चौपालों पर कजरी की तान सुनाई देती है और न आंगनों में पड़ते झूले दिखते हैं। युवा पीढ़ी सोशल मीडिया और वर्चुअल दुनिया में इस कदर उलझ गई है कि उसे अपनी जड़ों की चिंता नहीं रही। बुजुर्ग बताते हैं कि पहले सावन केवल ऋतु नहीं, एक उत्सव होता था। नदी किनारे, बाग-बगैचों में महिलाएं टोली बनाकर झूला झूलतीं, गीत गातीं और आपसी रिश्तों को मजबूत करती थीं। सावन की ये परंपराएं नारी सशक्तिकरण, सामाजिक समरसता और प्रकृति से जुड़ाव की जीवंत मिसाल थीं। लेकिन आज, सावन महज कैलेंडर पर दर्ज एक माह बनकर रह गया है। न तो तीज के मेले लगते हैं, न ही गीतों की तैयारी होती है। सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं भी सांस्कृतिक पुनर्जागरण की दिशा में सक्रिय नजर नहीं आ रहीं। अगर समय रहते इस ओर ध्यान न दिया गया, तो आने वाली पीढ़ियां सिर्फ किताबों, यूट्यूब वीडियो और दस्तावेजों में ही ष्सावन गीतष् और ष्झूलेष् को देख-सुन सकेंगी कृ वो भी बिना यह समझे कि इनका वास्तविक स्वरूप क्या था , लोगो का कहना है कि अब समय आ गया है कि स्कूलों, पंचायतों और युवाओं की भागीदारी से इस सांस्कृतिक धरोहर को बचाया जाए। सावन के पारंपरिक आयोजनों को विद्यालयों में पुनर्जीवित किया जाए, ग्राम स्तर पर लोकगीत प्रतियोगिताएं, झूला महोत्सव और तीज मेलों का आयोजन किया जाए ताकि अगली पीढ़ी न केवल अपनी संस्कृति से परिचित हो, बल्कि गर्व के साथ उसे आगे भी बढ़ाए। कुल मिलाकर सावन की परंपराएं बुंदेलखंड में सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा थीं। इन्हें बचाना केवल परंपरा की बात नहीं, यह हमारी आत्मा और पहचान को बचाने का प्रयास है।
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हिन्दुस्थान समाचार / पंकज मिश्रा
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