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चाणक्य ने सम्राट के लिए क्या बचपन से चंद्रगुप्त मौर्य को किया था तैयार? इतिहासकारों की यह है राय

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Life Span publisher कई विद्वानों का मानना है कि मौर्य शब्द की जड़ मयूर में है (सांकेतिक तस्वीर)

चंद्रगुप्त मौर्य के प्रभाव का अंदाज़ा इसी बात से लगता है कि उनका ज़िक्र संस्कृत, पाली, प्राकृत और यहाँ तक कि ग्रीक और लैटिन भाषाओं की कई रचनाओं में मिलता है.

इन रचनाओं में मेगस्थनीज़ की 'इंडिका' भी शामिल है लेकिन किसी भी रचना की मूल प्रति कहीं भी मौजूद नहीं है जिससे मौर्य वंश की नींव रखने वाले सम्राट के शासनकाल का प्रामाणिक विवरण मिल सके.

यहाँ तक कि उनके पोते अशोक ने अपने शिलालेखों में अपने दादा का बिल्कुल भी ज़िक्र नहीं किया है.

चंद्रगुप्त मौर्य के बारे में इतिहासकारों में एक राय नहीं है. बौद्ध स्रोतों जैसे 'दीघ निकाय' और 'दिव्यावदान' में मौर्य लोगों को पिप्पलिवन पर राज करने वाले क्षत्रियों का वंशज बताया गया है.

दूसरी ओर, कई विद्वानों का मानना है कि मौर्य शब्द की जड़ मयूर में है जिसकी वजह से माना जाता है कि वे उस क्षेत्र के रहने वाले थे जहाँ बहुत मोर थे या फिर उनके जीवन में मोर की बहुत अहमियत थी.

कुछ लोग मानते हैं कि वे मोर पालते थे, जबकि कुछ मानते थे कि वे मोर का शिकार करते थे, लेकिन पक्के तौर पर कुछ कहना मुश्किल है.

विशाखदत्त ने अपने चर्चित नाटक 'मुद्राराक्षस' में चंद्रगुप्त के लिए 'वृषला' शब्द का प्रयोग किया है, कुछ लोग इसका अर्थ 'शूद्र का बेटा' बताते हैं.

लेकिन राधाकुमुद मुखर्जी अपनी किताब 'चंद्रगुप्त मौर्य एंड हिज़ टाइम्स' में लिखते हैं, 'वृषला' एक आदरसूचक शब्द है जिसका अर्थ होता है 'सबसे अच्छा राजा.' कई प्राचीन रचनाओं में चाणक्य चंद्रगुप्त को प्यार से वृषला संबोधित करते हैं.

चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य की मुलाक़ात image Getty Images यूनानी इतिहासकार जस्टिन लिखते हैं कि चंद्रगुप्त के बोलने के अंदाज़ ने सिकंदर को नाराज़ कर दिया था

चंद्रगुप्त मौर्य के जन्म के बारे में कई मतभेद हैं लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने ईसा पूर्व चौथी सदी में क़रीब 21 वर्षों तक राज किया था.

उन्होंने सबसे पहले अपने-आप को पंजाब में स्थापित किया और फिर पूर्व में जाकर मगध पर नियंत्रण किया. इस पूरे अभियान में चंद्रगुप्त की सबसे अधिक मदद की चाणक्य ने. चंद्रगुप्त की चाणक्य से मिलने की भी दिलचस्प कहानी है.

कई प्राचीन रचनाओं में वर्णन मिलता है कि मगध के राजा धनानंद के ख़राब व्यवहार से आहत चाणक्य ग्रामीण इलाक़ों में घूम रहे थे. उस समय 11-12 वर्ष के चंद्रगुप्त ने बच्चों के खेल में राजा की भूमिका निभाते हुए एक दरबार लगा रखा था.

देविका रंगाचारी अपनी किताब 'द मौर्याज़, चंद्रगुप्त टु अशोका' में लिखती हैं, "चाणक्य ने चंद्रगुप्त को एक पेड़ के तने पर बैठकर सबूतों के आधार पर न्याय करते हुए देखा. वो उससे बहुत प्रभावित हुआ. उसने उस लड़के के अभिभावकों से अनुरोध किया कि वो उसे उनके साथ जाने दे."

"चाणक्य चंद्रगुप्त को अपने साथ तक्षशिला ले गए, यह जगह अब पाकिस्तान में है, वहाँ उन्होंने उनको गुरुकुल में प्रवेश दिलाया. उस समय तक्षशिला शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र हुआ करता था. इसके अलावा चाणक्य ने बार-बार उनकी परीक्षा लेकर आने वाली चुनौतियों के लिए उन्हें तैयार किया."

इसी दौरान सिकंदर ने भारत में अपना अभियान शुरू किया. मौक़े का फ़ायदा उठाने में माहिर चाणक्य ने चंद्रगुप्त को सिकंदर से मिलने भेजा.

यूनानी इतिहासकार प्लूटार्क लिखते हैं, "इस बात के संकेत नहीं मिलते कि चंद्रगुप्त मगध पर हमले के लिए सिकंदर की मदद माँगने गए थे. बहरहाल, यह बैठक कामयाब नहीं हुई, चंद्रगुप्त ने सिकंदर के सामने कुछ ऐसी बात कही जो उसे पसंद नहीं आई."

एक और यूनानी इतिहासकार जस्टिन ने लिखा, "चंद्रगुप्त के बोलने के अंदाज़ ने सिकंदर को इतना नाराज़ कर दिया कि उसने उसे मारने का आदेश दे दिया. अपने पैरों की तेज़ी की वजह से चंद्रगुप्त की जान बच पाई."

"वहाँ से भागने के बाद जब चंद्रगुप्त थक कर सो रहा थो तो एक बड़ा शेर उसके पास आया. उसने अपनी जीभ से उसके शरीर से बहने वाले पसीने को चाटा और वहाँ से चला गया. इसके बाद चंद्रगुप्त ने कुछ लोगों को इकट्ठा कर अपनी सेना बनानी शुरू कर दी."

जस्टिन के विवरण से पता चलता है कि सिकंदर की मृत्यु के बाद चंद्रगुप्त ने पंजाब और सिंध के लोगों को आज़ाद करा लिया था.

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चंद्रगुप्त की चाणक्य पर निर्भरता image S&S India देविका रंगाचारी की किताब 'द मौर्याज़, चंद्रगुप्त टु अशोका'

चंद्रगुप्त का अगला लक्ष्य था मगध. वहाँ चंद्रगुप्त की अपेक्षाकृत छोटी सेना का मुक़ाबला धनानंद की विशाल सेना से था. जीत चंद्रगुप्त की हुई.

इस लड़ाई का वर्णन बौद्ध ग्रंथ 'मिलिंद पन्हो' में मिलता है. उसके अनुसार, "भद्दसाला के नेतृत्व में नंद के सैनिकों ने चंद्रगुप्त का बहादुरी से मुक़ाबला किया. इस लड़ाई में धनानंद को छोड़कर नंद वंश के सभी भाई मारे गए."

इस पूरे अभियान में चाणक्य उनके साथ साए की तरह रहे.

देविका रंगाचारी ने लिखा, "इस पूरे कथानक पर चाणक्य की छाप साफ़ देखी जा सकती है. कई जगह तो चंद्रगुप्त मूकदर्शक बने दिखाई देते हैं जो चाणक्य के साथ-साथ चलते हैं और उनकी बनाई योजना पर चलते हुए मगध के राजा बन जाते हैं."

"लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि यह भी कोई आसान काम नहीं था कि आप किसी अनजान व्यक्ति पर इतना विश्वास करें कि अपना सारा भविष्य उसके ऊपर ही छोड़ दें लेकिन जब चंद्रगुप्त ये सब कर रहे थे, वो बहुत युवा थे."

चाणक्य और धनानंद की तक़रार image Gyan Publishing House राधाकुमुद मुखर्जी की किताब 'चंद्रगुप्त मौर्य एंड हिज़ टाइम्स'

सवाल उठता है कि चाणक्य की धनानंद से ऐसी क्या दुश्मनी थी कि उन्होंने उन्हें गद्दी से हटाने के लिए चंद्रगुप्त मौर्य का सहारा लिया.

एक वर्णन यह है कि एक बार जब चाणक्य पाटलिपुत्र में धनानंद के दरबार में बैठकर भोजन कर रहे थे. तभी दरबार में धनानंद ने प्रवेश किया और उनकी पहली नज़र चाणक्य पर पड़ी.

दीपा अग्रवाल अपनी किताब 'चाणक्य- द मास्टर ऑफ़ स्टेटक्राफ़्ट' में लिखती हैं, "चाणक्य ने राजा को देखने के बावजूद भोजन करना जारी रखा. दंभी राजा को यह बात बहुत बुरी लगी और उसने आदेश दिया कि चाणक्य अपना भोजन रोककर तुरंत दरबार से निकल जाएं."

"जब चाणक्य ने उनकी बात नहीं सुनी तो राजा का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. इसके बाद चाणक्य ग़ुस्से से उठते हुए बोले कि वो तब तक अपनी चोटी की गाँठ नहीं बाँधेंगे जब तक वो नंद वंश की जड़ों को उखाड़ नहीं देते. इसके बाद से वो एक ऐसे व्यक्ति की तलाश में घूमने लगे जो उनके इस प्रण को पूरा करने में उनकी मदद कर सके."

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दुर्धरा से चंद्रगुप्त मौर्य का विवाह image Life Span publisher धनानंद की सबसे छोटी बेटी दुर्धरा थी

धनानंद की हार के बाद उन्हें सिंहासन छोड़ना पड़ा और चाणक्य ने अपनी चोटी फिर से बाँधनी शुरू कर दी.

देविका रंगाचारी लिखती हैं, "चाणक्य ने प्रस्ताव दिया कि चंद्रगुप्त निर्वासित राजा की सबसे छोटी बेटी दुर्धरा से विवाह कर लें. ये बात अजीब सी लगती है कि जिस लड़की के पिता को सिंहासन से हटाया गया हो, वो कैसे ऐसा करने वाले से विवाह के बारे में सोच सकती है लेकिन इस प्रस्ताव के राजनीतिक अर्थ थे. पहले भी शादी के माध्यम से दो विरोधी राजाओं को एक करके उनकी कटुता को दूर करने की कोशिश की जाती रही है."

पाटलिपुत्र की भव्यता image Getty Images सिकंदर के उत्तराधिकारी सेल्यूकस ने अपने राज्य का पूर्वी इलाक़ा चंद्रगुप्त को दे दिया था (सांकेतिक तस्वीर)

320 ईसा पूर्व तक चंद्रगुप्त अपने सारे भारतीय प्रतिद्वंद्वियों को हराकर गंगा के मैदानी इलाके़ पर अपना नियंत्रण कर चुके थे. उस ज़माने में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र की गिनती दुनिया के सबसे बड़े शहरों में होती थी.

डाइटर शिलिंगलॉफ़ अपनी किताब 'फ़ोर्टिफ़ाइड सिटीज़ ऑफ़ इंडिया' में लिखते हैं, "पाटलिपुत्र का कुल क्षेत्रफल 33.8 किलोमीटर थी. मिस्र का शहर अलेक्जेंड्रिया का क्षेत्रफल इसका आधा था जबकि रोम का क्षेत्रफल सिर्फ़ 13.72 वर्ग किलोमीटर था. पाटलिपुत्र शहर एथेंस से ग्यारह गुना बड़ा शहर था. पूरे शहर में 64 द्वार और 570 टावर थे. उस समय पाटलिपुत्र में क़रीब पाँच लाख लोग रहा करते थे."

जब सिकंदर के उत्तराधिकारी सेल्यूकस ने उसके साम्राज्य को वापस पाने के लिए पूर्व की तरफ़ कदम बढ़ाए तो यह कोशिश उल्टी पड़ गई. 305 ईसा पूर्व में उसका मुक़ाबला चंद्रगुप्त मौर्य से हुआ जिसमें उसकी बड़ी हार हुई.

इतिहासकार विलियम डेलरिंपल अपनी किताब 'द गोल्डन रोड' में लिखते हैं, "चंद्रगुप्त ने अपने नौ हज़ार हाथियों में से 500 हाथी सेल्यूकस को देकर ये भूमि ली थी. सेल्यूकस ने अपने राज्य का पूर्वी इलाक़ा चंद्रगुप्त को दे दिया था. दोनों पक्षों के बीच गठजोड़ और मज़बूत हुआ जब चंद्रगुप्त ने अपने एक बेटे का विवाह सेल्यूकस की बेटी से कर दिया."

पैट्रिक ओलीवेल अपनी किताब 'सोसाइटी इन इंडिया 300 बीसी टू 400 बीसी' में लिखते हैं, "हो सकता है कि चंद्रगुप्त ने स्वयं एक ग्रीक महिला से शादी की हो क्योंकि उस ज़माने में शांति समझौते के लिए ऐसा करने का चलन था. ये असंभव नहीं है कि चंद्रगुप्त के उत्तराधिकारियों की रगों में ग्रीक ख़ून दौड़ रहा हो."

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चंद्रगुप्त मौर्य की शासन प्रणाली image Life Span publisher किताबों से पता चलता है कि मौर्य साम्राज्य का प्रशासन बहुत प्रगति कर चुका था

सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में अपने एक प्रतिनिधि मेगस्थनीज़ को भेजा था. उसने अपनी किताब 'इंडिका' में उस समय के भारत का विस्तृत वर्णन किया है.

दुर्भाग्य से मेगस्थनीज़ ने जो वर्णन किया था उसकी मूल प्रति अब उपलब्ध नहीं है लेकिन उसका इस्तेमाल करते हुए बहुत से ग्रीक और लैटिन लेखकों ने उस समय के भारत का चित्र खींचा है.

इस वर्णन से पता चलाता है कि मौर्य साम्राज्य का प्रशासन बहुत प्रगति कर चुका था और उसका राज्य की आर्थिक गतिविधियों पर पूरा नियंत्रण था.

राजा प्रशासन का प्रमुख था. उसकी मदद करने के लिए 18 'अमात्य' होते थे जो प्रशासन की हर इकाई पर नज़र रखते थे.

चंद्रगुप्त मौर्य की विशाल सेना image Picador India एएल बाशम की किताब 'द वंडर दैट वाज़ इंडिया'

मेगस्थनीज़ ने चंद्रगुप्त की न्याय व्यवस्था की तारीफ़ करते हुए लिखा था कि राजा खुले दरबार में ख़ुद लोगों को न्याय देता था.

एएल बाशम अपनी किताब 'द वंडर दैट वाज़ इंडिया' में मेगस्थनीज़ के हवाले से लिखते हैं, "चंद्रगुप्त पाटलिपुत्र में एक आलीशान और विशाल महल में रहता था जिसकी सुंदरता और भव्यता अविश्वसनीय थी लेकिन उसका जीवन बहुत सुखी नहीं था क्योंकि उसे हमेशा अपनी हत्या का डर लगा रहता था."

"उसकी सुरक्षा के लिए चाकचौबंद प्रबंध किए जाते थे. पाटलिपुत्र को चारों तरफ़ से लकड़ी की बनी दीवारों से घेरा गया था. उन दीवारों में जगह जगह छेद किए गए थे ताकि वहाँ से बाणों को चलाया जा सके."

दीवारों से सटी हुई 600 फ़ीट चौड़ी खाई खोदी गई थी ताकि विरोधी सेना नगर के अंदर न घुस सके. पाटलिपुत्र पर तीस सदस्यों का एक प्रशासनिक बोर्ड शासन करता था.

चंद्रगुप्त के पास एक बड़ी सेना थी जिनको नियमित रूप से वेतन और हथियार दिए जाते थे.

मेगस्थनीज़ के अनुसार चंद्रगुप्त की सेना में छह लाख पैदल सैनिक, तीस हज़ार घुड़सवार और नौ हज़ार हाथी थे. हर हाथी पर महावत के अलावा चार सैनिक सवार रहते थे.

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चंद्रगुप्त की दिनचर्या

चंद्रगुप्त मौर्य का अधिकतर समय राजमहल में व्यतीत होता था.

जेडब्ल्यू मेक्रेंडल अपनी किताब 'एनशियंट इंडिया एज़ डिस्क्राइब्ड बाई मेगस्थनीज़ एंड एरियन' में लिखते हैं, "चंद्रगुप्त की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सशस्त्र महिला अंगरक्षकों को दी गई थी. जब वो लोगों के बीच जाते थे तो बेहतरीन मलमल के कपड़े पहनते थे जिस पर बैंगनी और सुनहरे रंग से कढ़ाई की जाती थी. कम दूरी की जगहों पर वो घोड़े से जाते थे लेकिन लंबी दूरी का सफ़र वो हाथी पर बैठकर तय करते थे."

"वो दिन में नहीं सोते थे. रात में वो अपना शयनकक्ष बदल-बदल कर सोते थे ताकि उनको मारने की किसी योजना को नाकाम किया जा सके. मालिश करवाते समय भी वो लोगों की फ़रियाद सुना करते थे. उनको हाथियों, बैलों और गैंडों की लड़ाई देखने का शौक था. वो बैलों की दौड़ देखने का भी कोई मौक़ा नहीं चूकते थे."

सिंहासन का परित्याग image Life Span publisher चंद्रगुप्त मौर्य की मृत्यु 293 ईसा पूर्व में हुई थी

अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में चंद्रगुप्त मौर्य ने शांति की तलाश में जैन धर्म की ओर रुख़ किया, उन्होंने सिंहासन का परित्याग करते हुए अपने बेटे बिंदुसार को मगध का राजा बना दिया था.

रोमिला थापर अपनी किताब 'अर्ली इंडिया' में लिखती हैं, "चंद्रगुप्त मौर्य एक जैन साधु भद्रबहु के साथ दक्षिण चले गए थे. वहाँ उन्होंने कर्नाटक के श्रवण बेलगोला में जैन तरीके़ से भूखे रह कर अपने जीवन का अंत किया था. उनकी मृत्यु 293 ईसा पूर्व में हुई थी. उस समय उनकी उम्र 50 वर्ष से ऊपर थी."

वो एक तरह से पूरे भारतीय उप-महाद्वीप के राजा थे. उनका साम्राज्य ईरान की सीमा से लेकर गंगा के पूरे मैदान तक फैला हुआ था.

उसमें आज के हिमाचल प्रदेश और कश्मीर भी शामिल थे. कलिंग (ओडिशा), आंध्र और तमिलनाडु उनके साम्राज्य में शामिल नहीं थे लेकिन आज का अफ़ग़ानिस्तान और बलूचिस्तान उनके साम्राज्य का हिस्सा माना जाता है.

उनके बारे में कहा जाता है कि वो न सिर्फ़ एक महान विजेता और साम्राज्य निर्माता थे बल्कि उतने ही बड़े प्रबंधक और प्रशासक भी थे.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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